• रूह अफ़ज़ा की खोज कैसे हुई? उसका इतिहास क्या है | जानिए रूह अफ़ज़ा की पूरी कहानी

    रूह अफ़ज़ा का इतिहास क्या है 

    कहानी की शुरुआत होती है साल 1906 से जब देश पर अंग्रेज़ों की हुकूमत थी और लार्ड कर्जन बंगाल के बंटवारे की रणनीति बना रहा था। ये वो दौर था जब देश की राजधानी दिल्ली में भीषण गर्मी पड़ रही थी। हालात ऐसे बन गए थे कि पूरा दिल्ली डिहाइड्रेशन उल्टी और डायरिया जैसी बीमारियों से परेशान था। हर दिन सैकड़ों लोगों की मौतें हो रही थी और ऐसा लग रहा था मानो दिल्ली जल्द ही वीरान हो जाएगा। 

    ऐसे दौर में जब मौत दिल्ली की सड़कों पर रक़्स कर रही थी तब एक शख़्स अपने कमरे में बैठा जड़ी बूटियों के इख़्तिलात से कुछ दवाएँ बना रहा था। उसने गुलाब, केवड़ा, खसखस, धनिया संतरा, तरबूज, अनानास, सेब और दूसरी चीज़ों का इस्तेमाल करके एक ऐसी दवा बनाई जिसने दिल्ली के मुर्दा दिलों में जान फूंक दी। पूरा दिल्ली हकीम साहब की उस दवा के लिए भागने लगा। जो भी लू और गर्मी का मारा उनके पास पहुंचता हकीम साहब उसे वही दवा थमा देते। थोड़े ही दिनों में दिल्ली में यह ख़बर फैल गई कि लाल कुआँ बाज़ार में एक हकीम है जिसके पास ऐसी जड़ीबूटी है जिससे हर बीमारी का इलाज किया जा सकता है। हकीम साहब के ज़रिए बनायी गई ये दवा कोई और नहीं बल्कि रूह अफ़ज़ा थी और उस हकीम का नाम था हकीम हाफ़िज़ अब्दुल मजीद। 


    वही हकीम अब्दुल मजीद जिसने हमदर्द दवाखाना की स्थापना की जो आज यूनानी दवाओं को बनाने वाली भारत की सबसे बड़ी कंपनी है। हकीम अब्दुल मजीद के ज़रिये बनायी गई इस दवा ने उस वक़्त पूरे देश में कोहराम मचा दिया। कोई घर और कोई इलाक़ा ऐसा नहीं था जहाँ पर ये दवा ना मौजूद हो। 1908 तक इसे जड़ी बूटी से बनी एक सीरप के तौर पर बेचा जाता रहा लेकिन 1908 में इसे नाम दिया गया रूह अफ़ज़ा का। रूह अफ़ज़ा यानी रूह को ताज़गी देने वाला


    ये नाम उर्दू अदब के मशहूर लेखक पंडित दयाशंकर नसीम की लिखी किताब मसनवी गुलज़ार-ए-नसीम से लिया गया था। जो लोग आज धर्म और संप्रदाय के नाम पर उर्दू और रूह अफ़ज़ा का विरोध कर रहे हैं उन्हें ख़बर नहीं कि रूह अफ़ज़ा का नामकरण करने वाला शख्स दयाशंकर नसीम एक हिंदू था। 


    रूह अफ़ज़ा की शोहरतें दिन बदिन आसमान छूती जा रही थी। इसकी बढ़ती माँग को देखते हुए हकीम अब्दुल मजीद ने इसे एक ब्रांड के रूप में स्थापित करने का फ़ैसला किया और 1910 में पहली बार रूह अफ़ज़ा का लेबल तैयार किया गया। इसे मशहूर आर्टिस्ट मिर्ज़ा नूर अहमद ने डिजाइन किया था। रूह अफ़ज़ा को बनाया तो एक दवा के रूप में गया था लेकिन उसे शोहरतें एक शरबत के रूप में मिलीं। रूह अफ़ज़ा अपनी तरह का एक पहला प्रयोग था जिस दौर में भारत में रंगीन छपाई आसान नहीं थी उस दौर में इसके लेबल को रंगीन कलर में प्रिंट किया गया। रूह अफ़ज़ा का पहला लेबल मुंबई के Bolton Press में छपवाया गया था। 


    पहली बोतल काँच की 


    शुरुआत में रूह अफजा को वाइन शेप की कांच की बोतलों में बेचा गया। हकीम अब्दुल मजीद ने बोतल को आकर्षित बनाने के लिए की रंगीन लेबलों का इस्तेमाल किया जो बाद में इसकी पहचान बन गए। बहुत कम लोग जानते हैं कि रूह अफजा के लैबल और उसकी पैकेजिंग में आज तक कोई बदलाव नहीं किया गया है। 


    आपको जानकर शायद हैरानी हो सकती है कि रूह अफ़ज़ा को बनाने का तरीका और उसका फार्मूला आज तक हकीम अब्दुल मजीद के परिवार के अलावा कोई नहीं जानता। इसे पिछले सौ सालों से गुप्त रखा गया है। रूह अफ़ज़ा को लू और गर्मियों की तपिश के इलाज के तौर पर ईजाद किया गया था। इसे बनाने में यूनानी चिकित्सा पद्धति का इस्तेमाल किया गया। 


    रूह अफ़ज़ा में कितने फल


    रूह अफजा में 35 से अधिक फलों और जड़ी-बूटियों का मिश्रण है, जिसमें संतरा, अनानास, स्ट्रॉबेरी, रसभरी जैसे फल शामिल हैं। इसमें गुलाब जल और केवड़ा जैसे यूनानी नुस्खे भी इस्तेमाल हुए हैं जो इसे ठंडक और औषधीय गुण प्रदान करते हैं। 


    रूह अफजा क्या है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि"हमदर्द" का सालाना टर्न ओवर 2,500 करोड़ रुपये से ऊपर है जिसमें अकेले "रूह अफजा" से ₹700 करोड़ की कमाई होती है। रमजान के महीने में इसके बगैर कोई दस्तरखान नहीं सजता। ये शरबत आज भारत की तहजीब और विरासत का हिस्सा बन चुका है।


    रूह अफ़ज़ा की कामियाबी के साथ हमदर्द दवाखाना का नाम पूरे भारत में फैल गया। 1947 तक हमदर्द एक ऐसा ब्रांड बन गया था जो रूह अफ़ज़ा के अलावा सैकड़ों तरह की दवाएँ बेचता था। हमदर्द द्वारा बनाई गयी दवाइयां आज भी पूरी दुनिया में इस्तेमाल की जाती हैं। पूरे भारत में हमदर्द के 5 लाख से भी ज्यादा आउटलेट मौजूद हैं और इसके द्वारा बनाई गयी 600 से अधिक दवाओं से करोड़ों इंसानों की जिंदगी बचाई जा चुकी है। हमदर्द की वेबसाइट के अनुसार, कंपनी हर साल 30 करोड़ से ज्यादा यूनिट्स का उत्पादन करती है, जो इसके वैश्विक प्रभाव को दर्शाता है। रूह अफज़ा से लेकर साफी रोगन ए बदन शीरी, जोशीना जैसी दवाएं आज हर घर में अपनी जगह बना चुकी हैं। 


    1922 में जब भारत में आज़ादी की रूपरेखा बनायी जा रही थी तब हमदर्द ने देश के स्वदेशी आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई। देश के मतवाले रूह अफ़ज़ा का जूस पीते और क्रांति की आग को भड़काने में लग जाते। हकीम अब्दुल मजीद ने देश और समाज की बड़ी ख़िदमतें कीं लेकिन इसी साल 1922 को उनका इंतक़ाल हो गया। हकीम मजीद तो चले गए लेकिन वो अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए जो आज पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है। 


    1947 में देश के बंटवारे का हमदर्द और रूह अफजा पर गहरा असर पड़ा। हकीम अब्दुल मजीद के बेटे हकीम अब्दुल हमीद तो भारत में रहे लेकिन उनके छोटे भाई, हकीम मोहम्मद सईद, पाकिस्तान चले गए जहाँ उन्होंने हमदर्द पाकिस्तान की स्थापना की और जब बांग्लादेश की स्थापना हुई तो इसकी एक शाखा वहाँ भी खोली गई। भारत में रहे हकीम अब्दुल हमीद ने 

    1948 में हमदर्द भारत को वक़्फ़ कर दिया। 


    रूह अफ़ज़ा एक वक़्फ़ संपत्ति 


    बहुत कम लोग जानते हैं कि हमदर्द दवाखाना एक वक़्फ़ सम्पत्ति है जिसकी 85 परसेंट कमाई 

    ग़रीबों अस्पतालों और ख़िदमते खल्क में ख़र्च की जाती है। इसकी कमाई से आज भारत के बहुत से स्कूल और कॉलेजेस चलते हैं। भारत के मशहूर हमदर्द पब्लिक स्कूल, हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, हमदर्द कालेज ऑफ फार्मेसी, हमदर्द यूनानी मेडीकल कालेज, मजीदिया अस्पताल , रुफैदा कालेज ऑफ नर्सिंग के अलावा HAHC सेंटेनरी अस्पताल हमदर्द दवाखाना द्वारा ही संचालित किए जाते हैं। 


    हकीम अब्दुल मजीद ने कई सालों तक जामिया मिलिया इस्लामिया और यूनानी टिब्बिया कॉलेज की स्थापना करने हकीम अजमल ख़ान के साथ काम किया। हमदर्द दवाखाना की स्थापना से पहले वो हकीम अजमल ख़ान के साथ ही रिसर्च किया करते थे। 


    हमदर्द पिछले 100 सालों से धर्म पंथ और संप्रदाय को देखे बगैर लोगों की खिदमत कर रहा है। हमदर्द आज भी हकीम अब्दुल मजीद के उस मिशन को आगे लेकर बढ़ रहा है जिसका मकसद था कि पैसे के अभाव में कोई भी गरीब इलाज से महरूम न रहे।आज हमदर्द के 600 से ज्यादा प्रोडक्ट और 5 लाख से ज्यादा आउटलेट के साथ भारत का सबसे बड़ा यूनानी ब्रांड बन चुका है। 


    रूह अफजा सिर्फ एक शरबत नहीं बल्कि एक तहजीब है। जो लोग धर्म पंथ और संप्रदाय का सहारा लेकर रूह अफजा को मिटाने की कोशिशें कर रहे हैं उन्हें पता नहीं की ना जाने कितने तूफ़ान आए और चले गए, ना जाने कितने साम्राज्य उखाड़ गए लेकिन वो मिलकर भी रूह अफ़ज़ा को नहीं मिटा पाये। ये एक दवा के शरबत में बदलने की वो कहानी है जिसने सालों से भारतीयों को एक धागे में पिरो रखा है।


    शोधकर्ता और लेखक - मोहम्मद फ़ैज़ान यूट्यूबर की वीडियो पर आधारित 



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